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त्वां ह्य॑ग्ने॒ सद॒मित्स॑म॒न्यवो॑ दे॒वासो॑ दे॒वम॑र॒तिं न्ये॑रि॒र इति॒ क्रत्वा॑ न्येरि॒रे। अम॑र्त्यं यजत॒ मर्त्ये॒ष्वा दे॒वमादे॑वं जनत॒ प्रचे॑तसं॒ विश्व॒मादे॑वं जनत॒ प्रचे॑तसम् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvāṁ hy agne sadam it samanyavo devāso devam aratiṁ nyerira iti kratvā nyerire | amartyaṁ yajata martyeṣv ā devam ādevaṁ janata pracetasaṁ viśvam ādevaṁ janata pracetasam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वाम्। हि। अ॒ग्ने॒। सद॑म्। इत्। स॒ऽम॒न्यवः॑। दे॒वासः॑। दे॒वम्। अ॒र॒तिम्। नि॒ऽए॒रि॒रे। इति॑। क्रत्वा॑। नि॒ऽए॒रि॒रे। अम॑र्त्यम्। य॒ज॒त॒। मर्त्ये॑षु। आ। दे॒वम्। आऽदे॑वम्। ज॒न॒त॒। प्रऽचे॑तसम्। विश्व॑म्। आऽदे॑वम्। ज॒न॒त॒। प्रऽचे॑तसम्॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:1» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चतुर्थ मण्डल में बीस ऋचा वाले प्रथम सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में वाणी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! जो (समन्यवः) क्रोध के सहित वर्त्तमान (देवासः) विद्वान् लोग (हि) जिससे कि (अरतिम्) पहुँचाने योग्य (देवम्) उत्तम गुणों के और (सदम्) गृह के तुल्य स्थिति के देनेवाले (त्वाम्) आपकी (इत्) ही (न्येरिरे) प्रेरणा करते हैं, इससे (इति) इस प्रकार (क्रत्वा) करके (न्येरिरे) मुझे भी निश्चयकर प्राप्त होवें और उस (मर्त्येषु) मरणधर्मवालों में (अमर्त्यम्) मरणधर्म से रहित परमात्मा की (यजत) पूजा करो और (आदेवम्) सब प्रकार विद्या आदि के प्रकाश से युक्त (आदेवम्) सब प्रकार देदीप्यमान (प्रचेतसम्) उत्तम ज्ञान से युक्त (जनत) उत्पन्न करो, ऐसा करके (विश्वम्) सब के (आदेवम्) सब प्रकार प्रकाश और (प्रचेतसम्) उत्तम ज्ञानयुक्त (जनत) उत्पन्न करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो अध्यापक और राजा भौंहें टेढ़ी करके विद्यार्थी मन्त्री और प्रजाजनों को प्रेरणा करें तो उत्तम श्रेष्ठ विद्वान् और धार्मिक होते हैं। जो मरणधर्म वालों में मरणधर्मरहित अपने प्रकाशस्वरूप परमात्मा की उपासना करके सब मनुष्यों को बुद्धिमान् विद्वान् करते हैं, वे ही सब काल में सत्कार करने योग्य और सुखी होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वाणीविषयमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! ये समन्यवो देवासो ह्यरतिं देवं सदं त्वामिन्न्येरिरे तस्मादिति क्रत्वा माञ्च न्येरिरे तम्मर्त्येष्वमर्त्यं यजत। आदेवमादेवं प्रचेतसं जनत इति क्रत्वा विश्वमा देवं प्रचेतसमाजनत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वाम्) (हि) यतः (अग्ने) विद्वन् (सदम्) गृहमिव स्थितिपदम् (इत्) एव (समन्यवः) मन्युना क्रोधेन सह वर्त्तमानाः (देवासः) विद्वांसः (देवम्) दिव्यगुणप्रदम् (अरतिम्) प्रापणीयम् (न्येरिरे) निश्चयेन प्राप्नुयुः (इति) अनेन प्रकारेण (क्रत्वा) (न्येरिरे) प्रेरयन्ति (अमर्त्यम्) मरणधर्मरहितम् (यजत) पूजयत (मर्त्येषु) मरणधर्मेषु (आ) समन्तात् (देवम्) देदीप्यमानम् (आदेवम्) समन्तात् प्रकाशकम् (जनत) प्रसिद्ध्या प्रकाशयत (प्रचेतसम्) प्रकृष्टप्रज्ञायुक्तम् (विश्वम्) सर्वम् (आदेवम्) समन्ताद्विद्याप्रकाशयुक्तम् (जनत) उत्पादयत (प्रचेतसम्) विविधप्रज्ञानयुक्तम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - यद्यदध्यापको राजा च भ्रकुटीं कुटिलां कृत्वा विद्यार्थिनोऽमात्यप्रजाजनाँश्च प्रेरयेत्तर्हि ते सुसभ्या विद्वांसो धार्मिकाश्च जायन्ते। ये मरणधर्म्येष्वमरणधर्माणं स्वप्रकाशरूपं परमात्मानमुपास्य सर्वान् मनुष्यान् प्राज्ञान् विदुषो जनयन्ति त एव सर्वदा सत्कर्त्तव्याः सुखिनश्च भवन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वानाकडून जाणण्यायोग्य अग्नी, वाणी, सूर्य, विद्युत इत्यादींचे गुण वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - शिक्षक आणि राजा यांनी विद्यार्थी व मंत्री आणि प्रजाजन यांना कठोर होऊन शिस्त लावल्यास ते उत्तम, सभ्य, विद्वान तसेच धार्मिक होतात. मर्त्य मानव जेव्हा अमर्त्य व प्रकाशस्वरूप अशा परमेश्वराची उपासना करतात ते सर्व माणसांना बुद्धिमान, विद्वान करतात आणि तेच सर्वकाळी सत्कार करण्यायोग्य असतात व सुखी होतात. ॥ १ ॥